मनुष्य खुश रहना चाहता है, अपना जीवन आनंदमय रूप से व्यतीत करना चाहता है। प्रायः खुशी का भाव स्थूल पर आधारित होता है, जबकि आनंद का भाव सूक्ष्म पर। खुशी एक भावना के रूप में हर व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करती है। मनुष्य स्वभाव से ही सुख की इच्छा और दुख से विरक्ति रखता है। खुशी का भाव एवं आनंद की अनुभूति जीवन को सार्थक बनाती है। हम इस लक्ष्य को पाने के लिए अपने जीवनयापन के माध्यमों का चुनाव करते हैं और जो सबसे श्रेष्ठ होता है उसे चुनते हैं। शांतिपूर्ण, सुखी व आनंदमय जीवन की परिकल्पना, हमेशा से दार्शनिकों, विद्वानों, नीति निर्धारण में लगे सभी महानुभावों, राजनीतिक विचारकों की सोच का हिस्सा रहा है। मनुष्य का जीवन बेहतर हो और उसे आनंद की अनुभूति हो, इस भाव ने, लगभग सभी शैक्षणिक विषयों के विद्वानों का ध्यान आकर्षित किया है। विज्ञान मनुष्य के जीवन को बेहतर बनाने का एक उत्तम माध्यम रहा है।
आनंद का दर्शन उसके अर्थशास्त्र से अधिक भिन्न नहीं है और यदि इस विचार को ब्रहद रूप से समझा जाए तो यह प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से उस राजनीति को प्रभावित करता रहा है जो मतदाताओं व जन सामान्य की खुशी, उनके आनंद पर केंद्रित रही है। राष्ट्र अपने सभी नागरिकों को खुश देखना चाहते हैं, सभी नीतियाँ किसी न किसी रूप में नागरिकों के हित को सर्वोपरि रखती हैं और एक आदर्श राष्ट्र की परिकल्पना हेतु यह सोच अच्छी होने के साथ-साथ उचित भी है। नीतियों में जन कल्याण की भावना जन मानस के हृदय में आनंद के भाव को जन्म देती है। जन कल्याण के लिए लोक नीतियां लोगों की स्थितियों में सुधार करने में मदद करती हैं। नागरिकों की भलाई की चिंता के साथ-साथ, राजनीतिक संप्रभुता को बनाए रखना भी लोक नीतियों का प्रमुख केंद्र रहा है।
एक अर्थव्यवस्था का आकार और विकास का स्तर मुख्य रूप से सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के संदर्भ में मापा जाता है। सकल घरेलू उत्पाद को बीसवीं शताब्दी में विकसित, पोषित व सुशोभित एक प्रमुख मापक के रूप में स्वीकृति मिली है। इस मापक को लोकप्रिय बनाने वाले साइमन कुजनेट ने शायद कल्पना भी नहीं की होगी कि राष्ट्र इस एक मापक को इतनी प्रमुखता देंगे कि राष्ट्रों की आर्थिक-सामाजिक नीतियाँ इस मापक पर ही केंद्रित होंगी, कि राष्ट्रों का विकास व प्रगति इसी मापक पर आधारित होगी। अर्थव्यवस्था किसी भी राष्ट्र की रीढ़ होती है परंतु नीतियों के केंद्र में नागरिकों की भलाई, नागरिकों में आनंद के भाव का संचार, को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। अर्थशास्त्र में कुछ विचारकों का मानना है कि जब तक आर्थिक प्रगति नहीं होगी जन कल्याण संभव नहीं है, वहीं दूसरी ओर सामाजिक अर्थशास्त्री व मानव विकास को केंद्र में रखने वाले विचारकों का मानना है कि यदि समाज खुश है, उसे आनंद की अनुभूति हो रही है तो उनकी सकारात्मक ऊर्जा किसी भी राष्ट्र को आर्थिक विकास की ओर अग्रसर करने में सक्षम होगी।
प्राचीन काल से उत्तर-आधुनिक काल तक की यात्रा ने अधिकांश राष्ट्रों में पूँजीवादी संरचना के उदय को देखा है। आर्थिक प्रगति स्थूल है, उसे देखा जा सकता है, महसूस किया जा सकता है और कुछ हद तक वह जरूरी भी है। अर्थशास्त्रियों, मनोवैज्ञानिकों व समाजशास्त्रियों ने इस गूढ विषय पर विस्तार से चर्चा की है। अनेकों शोध किए जा चुके हैं और ऐसा पाया गया है कि सकल घरेलू उत्पाद में सुधार से लोगों की जीवन संतुष्टि में सुधार नहीं हुआ है। हालांकि उनके जीवन स्तर में सुधार हुआ है, लेकिन अपने जीवन के प्रति उनकी धारणा में बराबर सुधार नहीं हुआ है, उनके आनंद में या उनकी खुशी में तुलनात्मक सुधार नहीं हुआ है। जैसा दिखाई देता है कि भौतिक अवसंरचना का कायाकल्प हो गया है जो तथाकथित अच्छे जीवन की सुख-सुविधा देने में समर्थ है, लेकिन इसने सामुदायिक और सामाजिक स्तर पर कई और समस्याओं को बढ़ा दिया है। सामाजिक व आर्थिक विषमताएँ दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ गई हैं, मानवीय मूल्यों में ह्रास हो रहा है, उपभोक्तावाद ने मोर्चा संभाल लिया है, भौतिकवाद लगभग हर जगह लोगों के मन में घुस गया है। यद्यपि राष्ट्र आर्थिक रूप से विकसित, समृद्ध और स्वतंत्र होते जा रहे हैं, फिर भी व्यक्तिगत जीवन में तनाव, भेदभाव, अपराध, अवसाद, पर्यावरण असंतुलन, सामाजिक अलगाव आदि की समस्याएं बढ़ रही हैं। ग्रेग ईस्टरब्रुक ने अपनी पुस्तक ‘द प्रोग्रेस पैराडॉक्स’ में अमेरिका और यूरोप के आंकड़ों के माध्यम से बताया कि पिछली आधी सदी में भौतिक बुनियादी ढांचे और जीवन स्तर में सुधार हुआ है, फिर भी इसने लोगों की जीवन संतुष्टि या खुशी को नहीं बढ़ाया है।
बीसवीं सदी के अंतिम दशक में राष्ट्रों की स्थिति की तुलना करने हेतु मानव विकास सूचकांक (हिउमन डेवलपमेंट इंडेक्स) का उद्भव हुआ जोकि सामाजिक विकास पर केंद्रित था। इस सूचकांक में सकल घरेलू उत्पाद के साथ-साथ स्वास्थ्य व शिक्षा संबंधी आँकणों को भी समाहित किया गया। चूंकि यह आर्थिक के साथ-साथ सामाजिक विकास का भी ध्यान रखता है, इसे स्वास्थ्य और शिक्षा के बुनियादी ढांचे में सुधार संबंधित लोक नीति बनाने हेतु एक बेहतर उपाय के रूप में स्वीकार किया गया। मानव विकास सूचकांक इस विचार पर आधारित है कि यदि किसी भी राष्ट्र में लोग शिक्षित होंगे व उनका स्वास्थ्य अच्छा होगा तो यह उन्हें सशक्त बनाएगा। नीति की दिशा ऐसी होनी चाहिए जो नागरिकों को सशक्त बनाकर उनका कल्याण करे।
भूटान, जो लोकतांत्रिक प्रणाली को अपनाने से पहले एक छोटा साम्राज्य था, एक अनूठे विकास मंत्र का अनुसरण कर रहा है, जिसके केंद्र में उसके नागरिकों का आनंद है, उनकी खुशी है, जिसको सकल राष्ट्रीय आनंद (ग्रोस नैशनल हैपीनिस) के नाम से जाना जाता है। भूटान की आर्थिक नीतियों की प्राथमिकता उसके नागरिकों की खुशी है। यह 2008 के शुरुआती महीनों की बात है जब यह छोटा साम्राज्य संसदीय लोकतान्त्रिक प्रणाली का सबसे युवा सदस्य बना। भूटान को सकल राष्ट्रीय आनंद पर ध्यान केंद्रित करते हुए पचास साल हो चुके हैं। भूटान नीतिगत ढांचे में खुशी के महत्व को लोकप्रिय बनाने और उसकी वकालत करने के लिए निरंतर प्रयास करता रहा है। सकल राष्ट्रीय आनंद, सकल राष्ट्रीय उत्पाद की तुलना में अधिक समग्र और मनोवैज्ञानिक शब्दों में जीवन की गुणवत्ता को परिभाषित करने का अद्भुत प्रयास है। सकल राष्ट्रीय आनंद का अनुसरण विकास को वह बहु-आयामी दृष्टिकोण प्रदान करता है जो मूलतः चार प्राथमिकताओं पर आधारित है – आर्थिक विकास, पर्यावरण संरक्षण, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक मूल्य, और सुशासन के बीच सद्भाव और संतुलन। ये चार प्राथमिकताएं सकल राष्ट्रीय आनंद की अवधारणा के चार स्तंभ हैं।
19 जुलाई, 2011 को विश्व के 68 राष्ट्र भूटान द्वारा लिए दृढ़ संकल्प (हैपीनिस: टूवर्ड्स ए होलिस्टिक एप्रोच टू डेवलपमेंट) में शामिल हुए जिसको संयुक्त राष्ट्र (यूनाइटेड नेशन्स) द्वारा मान्यता प्रदान की गई। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने इस संकल्प को स्वीकार किया जिसने आनंद को एक मौलिक मानवीय लक्ष्य के रूप में मान्यता दी और आर्थिक विकास के लिए अधिक समावेशी, न्यायसंगत और संतुलित दृष्टिकोण पर जोर दिया जो सभी की खुशी, आनंद और कल्याण को बढ़ावा देता है। इस संकल्प ने सदस्य राष्ट्रों को सकल घरेलू उत्पाद आधारित विकास से परे जाकर आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय उद्देश्यों को एकीकृत करने वाले विकास प्रतिमान के दृष्टिकोण को साकार करने के लिए कदम उठाने हेतु बाध्य किया।
इसी संकल्प से आगे बढ़ते हुए, संयुक्त राष्ट्र ने 2 अप्रैल 2012 को ‘हैपीनिस एण्ड वेल-बीइंग: डिफाइनिंग ए न्यू इकोनॉमिक पैरडाइम’ विषय पर अपनी पहली उच्च स्तरीय बैठक की मेजबानी की। इस बैठक में चर्चा के लिए सभी संबंधित विचारकों व नीति निर्धारण से जुड़े महत्वपूर्ण व्यक्तियों को आमंत्रित करने में भूटान के तत्कालीन प्रधान मंत्री श्री जिग्मे थिनले जी की मुख्य भूमिका थी। मुझे व्यक्तिगत रूप से इस बात की खुशी है कि इस सभा में भारत की ओर से शामिल होने हेतु मुझे श्री जिग्मे थिनले जी का आमंत्रण प्राप्त हुआ था, परंतु कुछ व्यक्तिगत कारणों के चलते मैं इसमें शामिल न हो सका, जिसका मुझे हमेशा खेद रहेगा। इस ऐतिहासिक बैठक में विकासशील और विकसित देशों के चुनिंदा राष्ट्राध्यक्षों, मंत्रियों, नोबेल पुरस्कार विजेताओं, प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों, विद्वानों, आध्यात्मिक और नागरिक समाज के नेताओं ने भाग लिया। संयुक्त राष्ट्र महासचिव सर्वश्री बान-की-मून जी ने कहा – ‘हमें एक नए आर्थिक प्रतिमान की आवश्यकता है जो सतत विकास के तीन स्तंभों के बीच समानता को मान्यता दे, सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय कल्याण अविभाज्य हैं। साथ में ये तीनों सकल वैश्विक आनंद को परिभाषित करते हैं।‘ 28 जून 2012 को संयुक्त राष्ट्र महासभा के सभी 193 सदस्य देशों ने सर्वसम्मति से संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव संख्या 66/281 को अपनाया और 20 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय आनंद दिवस (इंटरनेशनल डे ऑफ हैपीनिस) के रूप में मनाने का निर्णय लिया।
2012 में अर्थ इंस्टीट्यूट ने पहली वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट प्रकाशित की, जिसे कनाडा के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री, जॉन हेलवेल द्वारा संपादित किया गया था और जेफरी सैक्स द्वारा सह-संपादित किया गया था। आनंद के क्षेत्र में काम कर रहे सभी बुद्धिजीवियों ने इस मुहिम को ऊर्जा प्रदान की और वे किसी न किसी रूप में इस प्रक्रिया का हिस्सा बनें जिसने देशों और उनकी प्रगति की तुलना करने के लिए सकल घरेलू उत्पाद का एक अच्छा विकल्प प्रदान किया। आज इस रिपोर्ट का ग्यारहवाँ संस्करण आने वाला है।
इससे पहले कि हम सब इस आने वाली रिपोर्ट को पढ़कर भारत के बारे में अपनी प्रतिक्रिया दें व उदासीन हों, यह आवश्यक है कि समझ लिया जाए कि इस रिपोर्ट का आधार क्या है और वे कौन से कारक हैं जिनको इसमे शामिल किया जाता है। यह रिपोर्ट गैलप वर्ल्ड पोल के द्वारा एकत्रित आँकणों पर आधारित होती है जिसमें भारत से तीन हजार लोग हिस्सा लेते हैं। या यों कहें कि भारत की कुल जनसंख्या से मात्र तीन हजार नमूनों के आधार पर भारत के नागरिकों का अथवा पूरे राष्ट्र के आनंद अथवा खुशी का मापन होता है। जहां तक कारकों की बात है तो सकल घरेलू उत्पाद के साथ-साथ इस रिपोर्ट में पाँच और कारकों को लिया जाता है – व्यक्तियों द्वारा उनके जीवन का मूल्यांकन (लाइफ इवेलुएशन), सामाजिक संबल (सोशल सपोर्ट), जीवन में उचित विकल्पों के चुनाव की स्वतंत्रता (फ्रीडम टू मेक लाइफ चॉइसस), उदारता (जेनरासिटी), एवं भ्रष्टाचार की अनुभूति (पर्सेप्शन ऑफ करप्शन)। इसके अलावा गणना का एक और आधार है जो इन 6 कारकों की एक अन्याय व दुख से ग्रसित समाज पर आधारित कल्पित राष्ट्र (डिसटोपिया) से तुलना करता है।
यदि पिछली रिपोर्टों पर निगाह डाली जाए तो ऐसा लगता है कि भारत के हालात काफी खराब हैं, परंतु यदि हम व्यावहारिक रूप से अपने पड़ोसियों को देखें तो पाएंगे कि हमारी सामाजिक व आर्थिक स्थिति बहुत बेहतर है। हमने हाल के वर्षों में पाकिस्तान और श्रीलंका की स्थिति देखी है। यों तो दक्षिणी एशिया के सभी आठ देशों में भारत केवल अफगानिस्तान से बेहतर दिखता है, परंतु मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि यदि हम सामाजिक व व्यक्तिगत आनंद को समझें तो हमारी स्थिति हो सकता है भूटान से अच्छी न हो परंतु इस क्षेत्र के बाकी सभी सात देशों में सबसे अच्छी होगी। 2017 में इन्सब्रुक (औस्ट्रिया) में एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन मैं जॉन हेलवेल से मिला व उनको बताया कि वर्ल्ड हैपीनिस रिपोर्ट में जो भारत का स्थान है वह सत्य से परे है, आपको कुछ ऐसे कारकों को भी लेना चाहिए जो एशिया के मानव मूल्यों पर आधारित हों जैसे पारिवारिक व सामाजिक सम्बन्ध, सामुदायिक मूल्य, एकजुट होने का भाव आदि इत्यादि। उनका कोई स्पष्ट मत नहीं था परंतु उन्होनें इतना अवश्य कहा कि इस प्रकार के संस्थागत अथवा राष्ट्रीय आँकणों के अभाव में उन्हें गैलप वर्ल्ड पोल पर निर्भर रहना पड़ता है।
आप सभी ने शायद पढ़ा होगा, झूठ के तीन प्रकार हैं, साधारण झूठ, सफेद झूठ, और आंकड़ें। आंकड़ें स्थूल हैं, और आनंद सूक्ष्म। आप सभी को अंतर्राष्ट्रीय आनंद दिवस की शुभकामनाएं।
(आज दिनांक 20 मार्च 2023 के अमृत विचार दैनिक में इसका प्रकाशन हुआ है। क्लिक करें )
3 thoughts on “अंतर्राष्ट्रीय आनंद दिवस – कब, क्यों और कैसे”
very nice sir
thanks
खुश रहिए और खुश रखिए